गुलमोहर: अनिल कुमार श्रीवास्तव द्वारा रचित कविता


गुलमोहर सी ओज- दिप्त 
अरूणिम तुम्हारी यह हंसी, 
मदहोश कर देतीं हैं अब भी
और चाक - दिल ऐ हमनशीं।

चांद शरमाता ठिठक कर 
चांदनी बेबश खड़ी हो पर-कटी सी, 
सह न पाता रूप तेरा यूं सिमटकर 
बावरा बन कर श्रृंगार ज्यों प्रेयसी। 

है खड़ी हर ताप हर इस दोपहर की 
बांह फैलाए समर्पण की डली-सी, 
रूप - यौवन सब समेटे रूह में 
चेतना की डोर थामे ज्योत्सना सी। 

गुलमोहर-सी स्वर्ग की खिलती कली 
है धरा विस्मित न्योछावर हर घड़ी, 
आसनां-दिल ख्वाब संजोए  पड़ा 
ओस-सी कोमल वपु कंचन जड़ी। 

तुम प्रिये इस इश्क की प्राचीर में 
बिछ गई हो गात बन स्वर्ण-रूपसी, 
नाम अंकित गुलमोहर है इस हृदय में 
सात फेरों की कथा की प्रेयसी। 




Comments

Popular posts from this blog

A stranger: A poem by Preeti S Manaktala

Born Again: A poem by Gomathi Mohan

The book of my life: A poem by Richa Srivastava