रिमझिम गिरे सावन: स्वाति गर्ग द्वारा रचित कविता

 

रिमझिम गिरे सावन, तृषित प्रकृति को नहलाये,
जहाँ-जहाँ भी मैल जमा, धुलकर उज्ज्वल हो जाए,
काश ऐसा कोई सावन गिरे,ईर्ष्या, क्रोध, नफरत, सब धो जाए,
सदा के लिए बीज प्रेम व सौहार्द के अंकुरित कर जाये,
बोले पपीहा प्रीति करो, प्रेम करो,
गाये कोयलिया,घोलो मिश्री, फिर बोलो,
खुशियों के झूले, झूमें चहुँ ओर,
डाली हो खुशाल हरियाली की, ना चीखे कोई डोर,
खिलें उमंगों के कुसुम, हर ड्योढ़ी पर, 
सोंधी बालियाँ लहलहाएँ, हर खेत खलियान पर,
ना सूखे कोई गला, हर नदी मुस्कुराये देख दामन भरा, 
केसरी, सिंदूरी आम्र सी मिठास, घुल जाए हर ज़ुबान पर,
खनके चूड़ियाँ, बाजे पायलिया , महके मेहंदी हर सुहागिन की,
आए ना ख़बर किसी जवान या बीमार के जीवन खो देने की,
रिमझिम गिरे सावन, मन भावन ऐसा,
कालुष, कलंक, सब धुलकर हो जाएँ, खरा सोना,
रिमझिम गिरे सावन, पावन ऐसा, 
आशीष ईश्वर का जिसकी हर बूंद में, बरसता हो, वैसा।




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