Rajkumari: A poem by Anjali Sharma


खड़ी क्षितिज को दूर निहारती थी एक राजकुमारी
ढूंढती अपना अस्तित्व अनुपम विशाल सृष्टि में सारी
क्या है मेरा कोई टुकड़ा समस्त ब्रम्हांड सृजन में
क्यों रहती हूँ मैं बंद सजीले महल भवन में

नहीं स्वीकार मुझे हीरे मोती जड़ी ऊंची दीवारें
सतरंगी आकाश झरोखों से हर क्षण पुकारे
नहीं प्रतीक्षारत, मैं चाहूँ सपनों का राज कुंवर
तज परदे पहरेदार, ओढ़ ली है धूप की चादर

सूरज की प्रचंड अग्नि, बुलाये दुर्गम पर्वत की प्राचीर
मैं रचना चाहूँ नियम, क्यों लिखूं खुद अपनी तक़दीर
मैं पद्मिनी, मैं दुर्गा, मैं अन्नपूर्णा, मैं ही कल्याणी
रज़िया मैं, सावित्री मैं, सीता भी मैं और मैं क्षत्राणी

जीवन दायिनी माँ हूँ मैं और असुरों की संहारिणी
पृथ्वी, नभ, सागर की सहचर, मैं चिर हिम-निवासिनी
विचरूँ मैं पंख पसार उन्मुक्त नील गगन में
आशाओं के अश्व चढूँ, फिरूं हर वन उपवन में

रोक सकेगा मुझको अब कोई रूढ़ि, धर्म, समाज
तोड़ दिए सब बंधन पहन साहस का चोला आज
लांघी लक्ष्मण रेखा करने अपनी मिट्टी को नमन
मेरा भी अधिकार, मुझको भी प्यारा मेरा वतन। 



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