Diya aur baati: A poem by Anjali Sharma


दिए की जलती बुझती लौ टिमटिमाती हवाओं में
पर न हारे हिम्मत चाहे बवंडर हों लाख फ़िज़ाओं में
दीवाली ने पूछा दिए से आखिर क्यों जलते हो तुम
साल दर साल भोली बाती को क्यों ऐसे छलते हो तुम।

अब नहीं जलाते लोग इस मसली मिट्टी के दिए
पुराने रीत रिवाज़ बाँध किसी कोने में रख हैँ दिए
जलाते हैं देखो ये लड़ियाँ और फुलझड़ियाँ निराली
किसको फुर्सत है कि निहारे दिया बाती की लाली।

बोला दिया मुस्कुराकर जब तक घी बाती मेरे संग,
तब तक नहीं स्वीकार मुझे नूतन नकली रूप रंग
जलते हैं मंदिर में हम और जलें मृत्यु शय्या पर भी
करते हैं हर शाम रोशन दूर गांव कुटिया में अब भी।

जलती है बाती प्रिय मेरी फिर भी उफ़ न करती
जल के बूढ़ी कुम्हारिन का अब भी पेट है भरती
सूने मन में आस जगाने समर्पित बाती का हर धागा
जब तक अँधेरा है जग में दैदीप्य रहेगी हमारी आभा।




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