Yatharth Karn aur Kunti ka : A poem by Dr. Aruna Narlikar

 ( महाभारत के पात्र आज भी हमारे क़रीब हैं, जुड़े हुए हैं हमसे और हमारे यथार्थ से। कुंती की व्यथा को समर्पित मेरी कविता )
ईश्वर की माया, पंचतत्वों की छाया
ब्रम्हाण्ड में  घटने वाले हर क्षण की काया
हमेशा यथार्थ है - इतिहास,भविष्य, और वर्तमान है
इन्हीं में समाया सारा परमार्थ  है !
सब जानती हूँ, पृथा हूँ, कुंती हूँ,
राजमाता हूँ, विजयी पाण्डुपुत्रों के राज्य विशाल की,
काँटों और फूलों पर चलने की आदत है मुझे,
 साक्ष है मेरे साथ जीवन  के हर बीते पल की |
यही हैं मेरे जीवन के यथार्थ, शब्दार्थ, और भावार्थ,
लेकिन एक और व्यथा है, कथा है मेरी,
शायद सबसे बड़ी विडम्बना मेरे जीवन यथार्थ की !
रात के स्वप्नों में, दिन के विचारों में,
ढूँढती हूँ, पुकारती रहती हूँ जिसे मैं
पाने के साथ ही खो चुकी हूँ जिसे मैं,
वह यथार्थ है सूर्य  सा तेजस्वी पुत्र मेरा - मेरे अल्हड़पन का प्रतीक,
मेरे भय का, मेरी भूल का, मेरे कर्मों का व्यतीत,
मेरे साथ जुड़ा हुआ मेरा अतीत!
कैसी विडम्बना नियति की, समाज की, मातृत्व के मान की ...
पूरा युद्ध महाभारत का सह लिया पर
पुत्र के बार बार होते अपमान को देख मूक कैसे रह सकी !
समाज का इतना बड़ा बोझ ना होता, तो यथार्थ कुछ और ही होता ...
उसी यथार्थ के रचनाकार से करती हूँ प्रार्थना
ऐसी रचना जीवन और समाज की रखना, जिसमें कभी ना हो मातृत्व का अपमान
कह सके कुंती गर्व से “कर्ण है मेरी संतान, मैं भी हूँ कितनी भाग्यवान !”

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