Holi: A poem by Krishna Kumari

मनाते रोज़ होली और दीवाली जो वतन की सरहदों में,
आओ झुककर करें सलाम उन्हें अब की होली में।

न पीला,न गुलाबी और न ही नीला चाहते हैं,
वतन की खातिर वो सुर्ख लाल में रंगना चाहते हैं।

बडी गहरी थी साज़िश वो हुए बेरंग कई घर हैं,
उन बेरंग घरों को प्यार में रंग दें अब की होली में।

सारी दुनिया ने देखी मथुरा और वृंदावन की होली,
पडोसी को लाल रक्त-सा रंग दें अब की होली में।

हमने हर बार है खेली लट्ठमार और फूल की होली,
चढ़ा है देशभक्ति का रंग अब की होली में।

मुझे भाता नहीं पिचकारी की फुहार और अबीर-गुलाल,
चाहती हूँ केसरिया में रंग जाऊं मैं अब की होली में।

शहीदों की चिताओं पर चढ़ा था रँग तिरँगे का,
छोड़कर होली,आओ श्रद्धांजलि दें उन्हें अब की होली में।


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