Kaal Ki Kalakriti: A poem by Rajeev Kumar Das


काल हर किसी को लाजवाब रखता है

अपनी मुट्ठी में सबका हिसाब रखता है


तिनका फ़िज़ूल पड़ा मत समझना उसे

माहताब कहीं कहीं आफ़ताब रखता है


सुहाने सपनों का दौर हो या चुभन का 

इब्तिदा से काँटे संग गुलाब रखता है


बेख़बर हो जाते हैं दौलत के मतवाले

सिकंदर के लिए भी जवाब रखता है


नहीं बख्शेगा विधाता मासूमियत देख

कौन पल अच्छा कौन ख़राब रखता है


नेकी कर तो उसे दरिया में डालते चल

अजूबा क़िस्म का वो किताब रखता है


अश्कों के धार को समन्दर मत समझना

ऐसे दरिया सा लाखों तालाब रखता है


जिसको अल्लाह ही रखे उसे कौन चखे

हिफ़ाज़त में तो फिर अजाब रखता है


कहीं चाँदनी कहीं बेनूर दीवाली लगती

इंसा आस में टूटा हुआ ख़्वाब रखता है


इतना यक़ीं कर ले ये काल का चक्र है

किसी की राह कभी नहीं ख़राब रखता है


अब तक तो जाना जो आया सो जाएगा

मिट्टी के खिलौने में कुछ देर ताब रखता है


दुनिया के आगे और भी हैं दुनिया यारों

वो सबका मालिक क्या नायाब रखता है



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