Wo Beeta Pal: A poem by Pratima Mehta


वो बीता पल जो मेरे मन से फिर कभी गया ही नहीं कही।
बाहर। जो अनुपस्थित, भीतर वही उपस्थित था कही।
मन का सांकल खटखटाती धीमी आहट से चौंकाता सा कहीं।
वो बीता पल सदियों की धुंध के गुबार में पुरवा के झोंके सा कही।
विस्मृति की लहर में डूबते  उतराते ठहरते हुए। कहीं।
फिर कभी गया ही नहीं कही।।
मनमंथन प्राप्ये कभी अमृत कभी विष का पान कराते हुए कहीं।
लंबे काल खंड के पार पृथक सा, तो कभी जुडा सा कहीं।
एक अंतराल के बीच परिचय की क्षणिक झलक सा कहीं।
बीता पल जो मेरे मन से फिर कहीं गया ही नहीं कहीं।।
स्मृतियों की मंजूषा में मणि मुक्ता जो परत दर छिपा सा कहीं।
झुर्रियों से भरे जर्जर खंडहर में उधघाटित मृदु उजाले सा कहीं।
रिक्त पृष्ठ पर  जो बहुत कुछ अनपढ़ा रह गया है कहीं।
निर्विकार मरू मन पर शीतल फुहार सा कही।
वो बीता पल ,जो अंतरमन में अमिट लिपि में अंकित हैं कहीं।
कथा सी मेरी जिन्दगी का सूत्रधार है कहीं।
जो मन से फिर गया ही नहीं कहीं।।






Comments

Popular posts from this blog

A stranger: A poem by Preeti S Manaktala

The book of my life: A poem by Richa Srivastava

The tree house: A story by Neha Gupta