Bhay: A poem by Sangeeta Gupta
मन का भय जब विचलित करता
सूनी राह पर चलने से डरता ।
काला अंधेरा देख दिल घबराता
भयभीत जीव क्या कुछ सोच पाता?
मां के शीतल आंचल मे जा
छिपने को व्याकुल हो जाता ।
कभी असफलता का भय
मुझे प्रतिपल सताता
ना हुआ सफल तो क्या होगा
लोग हसेंगे मेरी निंदा करेंगे
क्या प्रथम स्थान प्राप्त कर पाऊंगा ?
यही सोच मन घबरा जाता ,
यूं ही अनेक रूप ले भय मेरे द्वार पर खटखटाता ।
भय की आशंका से मन निरुत्तर हो जाता,
हिचकिचाता घबराता सहमकर पीछे हट जाता।
कैसे आगे इस कटीले पथ पर ,
भय साथ ले रक्त रंजित रहा पर,
क्या चल पाऊंगा मैं ?
दे प्रभु मुझे तू आज सहारा ,
जो भय मुक्त हो जाऊं मैं ।
सूनी राह पर चलने से डरता ।
काला अंधेरा देख दिल घबराता
भयभीत जीव क्या कुछ सोच पाता?
मां के शीतल आंचल मे जा
छिपने को व्याकुल हो जाता ।
कभी असफलता का भय
मुझे प्रतिपल सताता
ना हुआ सफल तो क्या होगा
लोग हसेंगे मेरी निंदा करेंगे
क्या प्रथम स्थान प्राप्त कर पाऊंगा ?
यही सोच मन घबरा जाता ,
यूं ही अनेक रूप ले भय मेरे द्वार पर खटखटाता ।
भय की आशंका से मन निरुत्तर हो जाता,
हिचकिचाता घबराता सहमकर पीछे हट जाता।
कैसे आगे इस कटीले पथ पर ,
भय साथ ले रक्त रंजित रहा पर,
क्या चल पाऊंगा मैं ?
दे प्रभु मुझे तू आज सहारा ,
जो भय मुक्त हो जाऊं मैं ।
तब शान्त मन और पूर्ण सुख को पाऊ मैं।
बहुत सुन्दर कविता है । 👍
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