Gulaal: A poem by Nisha Tandon

बीत गए ना जाने सावन कितने एक अधूरी आस में 
तोड़ कर बिखेर दिया हमें तेरी जुदाई के एहसास ने 

नज़रें ढूँढती रही तुम्हें फ़िज़ा में फैले हुए हर रंग में 
रंगते थे गुलाबी तुम मुझे जब हुआ करते थे हम संग में 

रंगों से भरते थे ज़िंदगी हमारी हर दिन तब होली थी 
निकल जाएँ जिस रास्ते से लगता था मस्तानों की टोली थी 

साथ में थे तुम तो रंगों के मायने ही कुछ और थे 
हर दिन एक नया त्योहार , वो भी अनोखे दौर थे 

तेरे जाने के बाद भी हर होली पर आसमान रंगते दिखा है 
पर बिन तेरे अब हर होली सूनी और हर रंग फीका है

वक़्त बीत गया और होली एक बार फिर नए ख़्वाब लेकर आ गयी 
हर तरफ़ उल्लास और ख़ुशियों की बदरा छा गई 

इश्क़ का कहीं लाल तो कहीं ख़्वाबों का पीला रंग छाया है
हरियाली को चीरता हुआ नीला रंग ना जाने कहाँ से चला आया है 

तुमने हमेशा चाहा कि मेरे जहाँ में हर रंग का बसेरा हो 
डूब जाए सूरज भले ही, पर हर दिन नया सवेरा हो 

तेरी ख़ुशी की ख़ातिर जीना है हमें तेरी ख़ूबसूरत यादों में 
बिता देंगे ज़िंदगी तनहा सही , खो कर तुझसे किए वादों में 

बस यही सोच मैंने अपनी बेरंग ज़िंदगी को बदलने का मन बना लिया 
और इस साल होली में चुपके से एक मुट्ठी लाल गुलाल उठा लिया 



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