Kaalchakra: A poem by Mukesh Kumar Badgaiyan
जब तक कि मैं !
हे काल ! तेरे चक्र की
महिमा का मंडन करता
फिसल गया ! तत्क्षण ही वह क्षण ---
जिस 'क्षण' में 'उस क्षण ' था मैं !
अभिमन्यु ! भी हुआ पराजित !
चक्रव्यूह से अपरिचित था !
कालचक्र ने करवट बदली !
भीलों ने अर्जुन को लूटा !
गाण्डीव और आग्नेय हुए अंततोगत्वा निष्प्राण!
जरा बहेलिया ने हर लिए श्रीकृष्ण के प्राण!
" मनुष न होत ,समय होत बलबान ।
भीलन लूटीं गोपिका, बेई अर्जुन बेई बाण।।"
कौन यहाँ है ? जो कालचक्र को समझ सका!
देखो ! हारे भगवान ! और सब इंसान!
हे चिर् काल ! परम सत्य ! सदा तेरा अस्तित्व!
कल था !आज है और कल भी तू होगा!
हे ! "होने की अनूभूति !" सदा रहेगी तेरी विभूति!
शरणागत मैं ! नतमस्तक हूँ!
कालचक्र से बंधा हुआ हूँ ।
Comments
Post a Comment