Yathaarth: A poem by Bhargavi Ravindra
हम कितनी दूर निकल आए हैं अपने 
एक अनजानी राहों पर चले जा रहे 
लौटना भी चाहते हैं तो लौट नहीं
अब वो पगडंडियाँ कहाँ जो हमें य
अब न आँगन में थकीहारी धूप सुस्
न ही रंगों में डूबी शाम महकती,
क्योंकि ,अब कहाँ कोई चारपाई पर
न ही पनिहारिन कुएँ की मुँडेर प
हम कहाँ मिल पाते हैं अपने यथा
आँखों में जब हर रोज़ एक नया सप
कहाँ फिर लोगों की तस्वीर उसमें
सबको अपने हिस्से का आसमान चाहि
ये कैसी मृगतृष्णा है? नियति की
कल्पना की उड़ान भरता इंसान
जीवन की कटु सच्चाई से आँखें चु
और भागता रहेगा 
जाने कब तक अपने आप से ,अपने यथा
चमकती सुहानी धूप सच है तो रात 
फूलों की महक सच है तो काँटों की चुभने में जीने का एहसास है ।
महलों में हँसी की गूँज है तो क
परछाईं जो दिन के उजाले में कभी
अँधेरे में वो भी तनहा साथ छोड़
आख़री मंज़िल तक कौन साथ निभाता
अचछा है हम अगर जुड़े रहे अपने 

 
 
 
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