Yathaarth: A poem by Bhargavi Ravindra
हम कितनी दूर निकल आए हैं अपने यथार्थ से
एक अनजानी राहों पर चले जा रहे हैं ।
लौटना भी चाहते हैं तो लौट नहीं सकते
अब वो पगडंडियाँ कहाँ जो हमें य थार्थ की ओर वापस ले जाए।
अब न आँगन में थकीहारी धूप सुस् ताने के लिए ठहरती
न ही रंगों में डूबी शाम महकती, इतराती गुज़रती
क्योंकि ,अब कहाँ कोई चारपाई पर बैठकर इधर उधर की बातें करता ।
न ही पनिहारिन कुएँ की मुँडेर प र ढोलकी के थाप पर गीत गाती
हम कहाँ मिल पाते हैं अपने यथा र्थ से !
आँखों में जब हर रोज़ एक नया सप ना घर करने लगे
कहाँ फिर लोगों की तस्वीर उसमें ठहरने लगे
सबको अपने हिस्से का आसमान चाहि ए ।
ये कैसी मृगतृष्णा है? नियति की कैसी विडम्बना है?
कल्पना की उड़ान भरता इंसान
जीवन की कटु सच्चाई से आँखें चु राकर भाग रहा है
और भागता रहेगा
जाने कब तक अपने आप से ,अपने यथा र्थ ....!
चमकती सुहानी धूप सच है तो रात का गहरा अँधेरा भी तो सच है
फूलों की महक सच है तो काँटों की चुभने में जीने का एहसास है ।
महलों में हँसी की गूँज है तो क हीं ईंटों के बोझ तले दबा एक सं सार है
परछाईं जो दिन के उजाले में कभी पीछे ,कभी आगे ,कभी साथ चलती है ।
अँधेरे में वो भी तनहा साथ छोड़ जाती है
आख़री मंज़िल तक कौन साथ निभाता है ?
अचछा है हम अगर जुड़े रहे अपने यथार्थ से ....!
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