Maa: A poem by Dr. Renu Mishra

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माँ 

काम के बारे में दुनिया पूछती है 
मेरे बारे में बस माँ पूछती है
पाँच किलो वज़न बेशक बढ़ गया हो
मगर...दुबली लग रही हो
मिलने पर ये सिर्फ़ माँ कहती है
शिफान हो या चंदेरी टसर हो या साउथ सिल्क 
सारिंयों का ये फर्क सिर्फ  माँ ही बताती है
शॉपिंग के खर्चे पड़ोसियों के चर्चे फैशन के लफड़े
गाॅसिप ये सारे सिर्फ माँ ही करती है
कढ़ी हो बनाना या हो गाज़र का हलवा
मटर पनीर की लज़ीज़ी सिर्फ़ माँ से आती है  
आँखों की हँसी से हो जाती है दुनिया ये गाफ़िल 
दिल की नमी सिर्फ़ माँ ही देखती है
सहेली है बनती बहन बन झगड़ती
माँ ही है सहारा वही साथी बनती 
कलम को पकड़ना उसी ने सिखाया
 अक्षरों से वाकिफ़ है उसीने कराया
उसी को है अर्पित ये शब्दों की सरिता
उसी को समर्पित उसपर ये कविता
उसी ने था मुझको चलना सिखाया 
पैरों पे होना उसीने बताया 
हाथ मेरा..पकड़ अब जो सहारा वो लेती
सीढियों पर उतरते चढ़ते किसी को पकड़ती
देख उसको यूँ लाचार दिल मुंह को आता है
मन मेरा कसमसा कर तड़प...जाता है 
जो ताकत है मेरी उसे कैसे कमजोर देखूँ  
आज उसको  सहारे से कैसे  चलता  देखूँ 
आँख भर आती है मेरी...ये दिल चीखता है
रो रो कर दुआ बस यही माँगता है
न्योछावर है उसको सब मेरी सारी ताकत
लग जाए उसे उम्र मेरी..जिए वो युगों तक
जिए वो युगों तक..!!


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