Ummeed- Maa ki Lau: A poem by Mani Saxena



 वर्षों से इंतज़ार की अग्नि में जो अखंड जल रही,
तेरे आने की चाहत में जो कभी भी बुझ सकी,
उम्मीद का दिया जला गयी तीली इक माचिस की,
बरसों से जो तप रही एक लौ माँ की उम्मीद की

हो तूफ़ान या सन्नाटे को चीरती तेज़ हवा आँधी की,
या बिन बादल मूसलाधार बरसती बारिश की नदी सी,
स्वयं ईश्वर बजा रहें हो चाहें शंकनाद प्रलय की,
पर डगमगा सका कोई ,एक लौ माँ की उम्मीद की

मौसम गुज़रे ऋतुएँ निकलीं समय की हर चोट बदली,
उम्र से पहले उम्र के हर दौर से गुज़री लौ तेरे इंतज़ार की,
कभी दिये की रौशनी सी सजती कभी धधकतीं अंगारों सी,
कभी सुलगती कभी मचलती एक लौ माँ की उम्मीद की

कालचक्र का पहिया सरका वक़्त बदलती सुइयाँ घड़ी की,
विश्वास की आस को पूरा करतीं प्यास तेरी युगों-युगों की,
जानती थी मैं अटल दृढ़ता पर मेरे घुटने टेकेगा काल भी,
तू आएगा ज़रूर आख़िर तू है एक लौ माँ की उम्मीद की






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