Gulaal: A poem by Priti Patwardhan
लाल पीले हरे गुलाबी है रंगबिरंगे गुलाल
ये गुलाल अब कर रहें हैं मुझसे कई सवाल
बिखर रहें फर्श पर करते बेतरतीब सी बातें
चूर अहम में धुले हुए ,लिए रंगों की सौगातें
प्रेम रंगों से रंगी रहती, थीं रंगीन जो दुनियाँ
जाने कहाँ खो गयी है वह भोर ,वह गलियाँ
रंग बदलती दुनियाँ ने यूँ बदली चाल जमाने की
गुलाल ले नफ़रत का हम खेलें होली स्वार्थ की
गोली बंदूक बारूद ने ली अपनी जगह बनाई
छोड़ पिचकारी मानव ने अपनी सुध बुध गवाईं
शायद तुमको मज़ा न आए इस बेरंग कहानी में
खो गया है मुल्क मेरा न जाने किस रवानी में
चारों तरफ़ बिखरा हुआ सना हुआ रंग लाल है
दिल मेरा घबरा रहा न जाने क्यूँ ये मलाल है
दया प्रेम के पर्व में लग रही मानो ठिठौली है
घर दुकान जला कर मना रहे हम होली है
चींख चींख कर गूंज रहा है यह नीला आसमान
मेरे देश में खो गयी है इंसानियत की पहचान
बंद करो अब बस करो यह चर्चा फ़िलहाल
दफ़न कर रंजिशें, फैलाओ प्रेम का गुलाल
एक कदम बस तुम चलो एक कदम चले हम
मिलकर मनाएं होली ईद आओ बढ़ाए कदम
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