Gulaal: A poem by Manisha Amol
होली के इस अवसर पर,हाल हुआ बेहाल,
धूम मची चारों तरफ़,उड़ता रंग गुलाल।
होली का गुलाल फिर से,प्रेम और ख़ुशियाँ बरसे,
सजनी को साजन भी तरसे,भाग रहीं सखियाँ डर से।
माथे और गालों पर,मले प्रीत का रंग,
नाचती और इठलाती,पीकर प्रेम का भंग।
वादियाँ हैं गूँज रहीं, गाते सब होली गीत,
इंतज़ार अब और नहीं,मिल जाओ मनमीत।
रंगों का ये ऐसा पर्व,भूले सब रंज मलाल,
दिल से दिल ऐसे मिले,सब हो गए मालामाल।
कुछ मीठी यादें आ घिरीं,अमरायी की छांव,
हुड़दंग मचाते बचपन की,दबे दबे से पाँव।
सबों के चेहरे पे है आज,ख़ुशी की ऐसी धार,
मन पुलकित हो उठा सभी का,ऐसा ये त्योहार।
लाल, हरा, नीला,पीला,मौसम खिला वसन्त,
बिखरी होली की मस्ती, ख़ुशियाँ घोर अनन्त।
पर इस वर्ष होली पे,कुछ ऐसे उठे सवाल,
खेली ख़ून की होली,हुई धरती सुर्ख़ लाल।
होली के इस पावन पर्व, रंग हुआ बेरंग,
मानवता को डस गया ,मनुष्य रूपी भुजंग।
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