Khwaahishein: A poem by Rajeev Kumar Das
हर हुनर को तराशना सिखलाए ख़्वाहिशें
सारी दुनिया जीतना सिखलाए ख़्वाहिशें
जीने की तमन्ना रखा करें ज़माने ख़ातिर
मौत के मुँह से लड़ना सिखलाए ख़्वाहिशें
दौर गुज़रने पर पछताकर हँसी बन जाओगे
वक्त के साथ चलना सिखलाए ख़्वाहिशें
बिन सपने जिंदगी निकम्मों सी हो जाती है
पसीने में हर पल तैरना सिखलाए ख़्वाहिशें
याद कर सलामत है इतिहास जिनका आज
सबसे जुदा कुछ करना सिखलाए ख़्वाहिशें
अनमोल रिश्तों की क़दर हर कोई नहीं करते
तन्हाई में खूब तड़पना सिखलाए ख़्वाहिशें
जाँ की बाज़ी अजनबी को भी लगाने आए
ग़ैरों के लिए आँसू भरना सिखलाए ख़्वाहिशें
अनाथालय में बुज़ुर्ग सुकून तलाशने लगे हैं
श्रवण कुमार हो जाना सिखलाए ख़्वाहिशें
पति पुरुषार्थ समर्पित कर दे अर्द्धांगिनी पर
पत्नी को सावित्री बनना सिखलाए ख़्वाहिशें
वक्त संग ना चले कगार के पेड़ कहलाते हैं
हर दौर के साथ ढलना सिखलाए ख़्वाहिशें
सियासी ग़द्दारों से मुल्क जब तबाह होने लगे
वतन के लिए जान देना सिखलाए ख़्वाहिशें
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