Jeevan ka Shringaar: A poem by Sunita Singh
विरंजित सीलन भरी दीवारों में,
दमघोंटू गलियों के चौबारों में,
काल - कोठरी से कमरों की बस्ती,
में गुम हो जीवन ज्यौं अँधियारों में।
किस डर ने आतंक मचाया जम कर,
लेती टोह बाट की, बाला ढककर,
अपने चेहरे को दो आंखें छोड़े,
क्या आस ले हिम्मत करे सिहरकर?
कैद हुआ तन पर मन पंछी भटके,
उन्मुक्त गगन में उड़ने को हटके,
शापित दुनिया के शापित कोनों से,
खोल के किवाड़ के पल्लों के फटके।
जीने का माहौल भयावह रहता,
रुकता गिरता आखिर चल ही पड़ता;
जीवन का श्रृंगार यही होता है,
तपकर कुंदन सा जो और निखरता।
दमघोंटू गलियों के चौबारों में,
काल - कोठरी से कमरों की बस्ती,
में गुम हो जीवन ज्यौं अँधियारों में।
किस डर ने आतंक मचाया जम कर,
लेती टोह बाट की, बाला ढककर,
अपने चेहरे को दो आंखें छोड़े,
क्या आस ले हिम्मत करे सिहरकर?
कैद हुआ तन पर मन पंछी भटके,
उन्मुक्त गगन में उड़ने को हटके,
शापित दुनिया के शापित कोनों से,
खोल के किवाड़ के पल्लों के फटके।
जीने का माहौल भयावह रहता,
रुकता गिरता आखिर चल ही पड़ता;
जीवन का श्रृंगार यही होता है,
तपकर कुंदन सा जो और निखरता।
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